The below mentioned article provides a biography of Sher Shah who was the ruler of Mughal empire in India during the medieval period.
शेरशाह के आरंभिक जीवन के बारे में कुछ अधिक नहीं मालूम । उसका मूल नाम फरीद था और उसके पिता जौनपुर के एक छोटे-से जागीरदार थे । अपने पिता की जागीर सँभालते हुए फरीद ने ठोस प्रशासनिक अनुभव प्राप्त किया । इब्राहीम लोदी की हार और मौत के बाद तथा अफगानों में फैली अफरातफरी के कारण वह सबसे महत्वपूर्ण अफगान सरदारों में से एक के रूप में उभरा ।
उसके संरक्षक ने उसे एक शेर को मारने पर शेरखान नाम दिया था । शेरखान बिहार के शाह का दाहिना हाथ और बिहार का वास्तविक शासक बनकर उभरा । बिहार का शासक तो उसका बस नाम का ही स्वामी था । ये बातें बाबर की मृत्यु से पहले की हैं ।
अनेक धनी विधवाओं से विवाह शेरखान के उदय में सहायक रहा । मसलन लाड मलिका का पति चुनार के किले का कमानदार था । वह जब मरा तो किला और उसकी संपत्ति उसकी विधवा के हाथों में आ गए जिसे अब सहायता और संरक्षण की आवश्यकता थी ।
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शेरखान ने उससे विवाह कर लिया । इसी तरह उसने गाजीपुर के नसीर खान नूहानी की संतानहीन विधवा और मियाँ मुहम्मद काला पहाड़ की विधवा से विवाह किया । शेरखान तब 40 वर्ष से थोडा-सा ही ऊपर था । बिहार के शासक मुहम्मद शाह की मृत्यु के कुछ ही समय बाद राज्य के मामले उसकी विधवा दूदू के हाथों में आ गए । एक नाबालिग बेटे को नियुक्त तो किया गया पर जल्द ही राज्य के सारे मामले शेरखान के हाथों में आ गए, जिसे दूदू का पूरा विश्वास प्राप्त था ।
बिहार पर बंगाल के शासक नुसरत शाह के अनेक हमलों के बाद शेरखान ने बिहार के अफगानों को अपनी ओर मिलाकर जवाबी कार्रवाई की और 1534 में बंगाल के शासक को सूरजगढ़ की लड़ाई में करारी मात दी । जल्द ही उसने अपने आपको बंगाल का लगभग स्वामी जैसा बना लिया ।
इस तरह शेरखान का उदय कोई अकस्मात नहीं हुआ । अब वह वही मामूली सरदार नहीं था, जिसे हुमायूँ ने चुनार में घेरा था और मुगलों की अधिराजी मानने के लिए मजबूर कर दिया था । अब वह बिहार का और बंगाल का भी स्वामी था और उसके पास भारी संसाधन थे जिनके बूते पर उसने हुमायूँ को हराया । लेकिन शेरखान के अपने सैन्य कौशल के बिना यह संभव भी नहीं होता ।
शेरशाह और सूर साम्राज्य (1540-55):
शेरशाह दिल्ली के तख्त पर कोई 54 वर्ष की आयु में बैठा । शेरशाह ने मुहम्मद बिन तुगलक के बाद उत्तर भारत के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य पर शासन किया । उसका साम्राज्य बंगाल से लेकर (कश्मीर को छोड़) सिंध तक फैला हुआ था ।
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पश्चिम में उसने मालवा और लगभग पूरे राजस्थान को जीता । मालवा तब कमजोर और अस्तव्यस्त था तथा प्रतिरोध करने की हालत में नहीं था । मालवा की मुहिम के दौरान ही एक ऐसी घटना घटी जो शेरशाह के नाम पर कलंक है ।
चंदेरी के शक्तिशाली दुर्ग के रक्षक पूरनमल ने सुरक्षित निकल जाने देने के पक्के वादे पर किला खाली कर दिया । लेकिन उस पर उसके 1000 राजपूतों के दल पर और उनके परिवारों पर किले के बाहर धोखे से हमला किया गया और उन्हें मार डाला गया । उलमाओं ने फतवा दिया कि काफिरों से किए गए वादे का पालन करना आवश्यक नहीं है और यह कि पूरनमल दंड का पात्र था, क्योंकि उसने मुसलमानों पर जुल्म ढाए थे तथा मुस्लिम स्त्रियों को अपने घर में रख छोड़ा था ।
राजस्थान की स्थिति मालवा से भिन्न थी । मारवाड़ का राजा मालदेव जो 1532 में गद्दी पर बैठा था तेजी से पूरे पश्चिमी और उत्तरी राजस्थान पर अपना नियंत्रण जमा चुका था । शेरखान के साथ हुमायूँ के टकराव के दौरान उसने अपने इलाके और फैलाए । जैसलमेर के भाटियों की सहायता से उसने अजमेर को जीता ।
अपनी विजय-यात्रा के दौरान उसका मेवाड़ समेत इस क्षेत्र के सभी शासकों से टकराव हुआ । उसका सबसे हाल का कारनामा बीकानेर को जीतना था । इस टकराव में बीकानेर का राजा बहादुरी के साथ प्रतिरोध करते हुए मारा गया । उसके बेटों कल्याणदास और भीम, ने शेरशाह के दरबार में शरण ली । दूसरे बहुत-से लोगों ने भी, जिनमें उसका संबंधी मेड़ता का बीरमदेव भी था जिसे मालदेव ने उसके पुश्तैनी ठिकाने से बेदखल कर दिया था । उसने भी शेरशाह के दरबार का रास्ता पकड़ा ।
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यह लाजमी था कि राजस्थान में अपने तत्वाधान में मालदेव ने एक विशाल केंद्रीकृत राज्य बनाने का जो प्रयास किया उसे दिल्ली और आगरा के शासक अपने लिए खतरा समझते थे । कहा जाता था कि मालदेव के पास 50,000 की सेना थी । फिर भी इसका कोई प्रमाण नहीं है कि मालदेव की दिल्ली या आगरा पर ललचाई दृष्टि थी । पहले की तरह अब भी रणनीतिक महत्व वाले पूर्वी राजस्थान पर वर्चस्व का प्रयास दोनों के बीच झगड़े की जड़ था ।
अजमेर और जोधपुर के बीच समेल में राजपूत और अफगान सेनाओं का टकराव (1544) हुआ । कोई एक माह की झड़पों के बाद मालदेव को लगने लगा कि एक शक्तिशाली तोपखाने के बिना बेहद मजबूत खेमेबंद अफगान सैन्यदल पर आक्रमण करना आत्मघाती होगा ।
इसलिए वह पीछे हटकर जोधपुर और सीवाना जाना चाहता था कि प्रतिरक्षा की बेहतर तैयारी कर सके । मालदेव को अलग-अलग ढंग की सलाह मिल रही थी । कुछ राजपूत सरदार किसी भी तरह पीछे हटने को अपमानजनक मानते थे ।
इसी समय शेरशाह ने यह चाल चली कि उसने मालदेव के खेमे के पास कुछ पत्र फिंकवा दिए जो राजपूत सेनापति को संबोधित थे और इस कारण मालदेव के मन में अपने कुछ सरदारों की निष्ठा को लेकर शंका पैदा हो गई । इसके कारण मालेदव ने अपनी अधिकांश सेना को पीछे जोधपुर तक हटा लिया ।
कुछ राजपूत सरदारों ने पीछे हटने से मना कर दिया । लगभग 10,000 की छोटी-सी सेना लेकर उन्होंने शेरशाह के केंद्र भाग पर जबरदस्त हमला किया और उसकी सेना में अफरातफरी मचा दी । अधिक संख्याबल और अफगान तोपों ने जल्द ही राजपूतों के आक्रमण को रोक दिया और राजपूतों की हार हुई ।
समेल की लड़ाई ने राजस्थान का भाग्य तय कर दिया । शेरशाह ने अब अजमेर और जोधपुर को घेरा डालकर जीत लिया तथा मालदेव को सीवाना के किले में पनाह लेने के लिए मजबूर कर दिया जहाँ जल्द ही उसकी मृत्यु हो गई ।
शेरशाह अब मेवाड़ की ओर मुड़ा । राणा विरोध करने की स्थिति में नहीं था और उसने चित्तौड़ की चाबियाँ शेरशाह को भिजवा दीं जिसने आबू पर्वत तक अपनी चौकियाँ बनाई । इस तरह दस माह की छोटी-सी अवधि में शेरशाह ने लगभग पूरे राजस्थान को रौंद डाला । उसका अंतिम अभियान कालिंजर के खिलाफ था ।
यह मजबूत किला बुंदेलखंड की कुंजी था । घेराबंदी के दौरान एक तोप फटी और शेरशाह बुरी तरह घायल हो गया । किले पर अधिकार हो जाने (1545) की खबर सुनने के बाद वह चल बसा । शेरशाह का उत्तराधिकारी उसका दूसरा बेटा इस्लामशाह बना, जिसने 1553 तक शासन किया ।
इस्लामशाह एक योग्य शासक और सेनापति था पर उसकी अधिकांश ऊर्जा उसके भाइयों के विद्रोहों तथा अफगानों के कबीलाई झगड़ों की भेंट चढ़ गई । इन बातों ने तथा एक नए मुगल हमले के हमेशा मौजूद खतरे ने इस्लामशाह को अपना साम्राज्य बढ़ाने का प्रयास करने से रोका ।
लेकिन मरने से पहले उसने अनेक प्रशासनिक सुधार किए जिनको शेरशाह द्वारा स्थापित प्रशासन व्यवस्था के संदर्भ में समझा जा सकता है । कम ही आयु में उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया । इसके कारण हुमायूँ को वह अवसर मिल ही गया अपना भारतीय साम्राज्य वापस पाने के लिए जिसकी उसे तलाश थी । 1555 में हुए दो सगीन युद्धों में उसने अफगानों को हराकर दिल्ली और आगरा पर फिर से अधिकार जमा लिया ।
शेरशाह का योगदान:
सूर साम्राज्य को कई अर्थो में दिल्ली सल्तनत का सातत्य और चरमोत्कर्ष कहा जा सकता है, जिसमें बाबर और हुमायूँ का आगमन उस सातत्य में एक विघ्न मात्र ही कहा जा सकता है । साम्राज्य के कोने-कोने में कानून और व्यवस्था की पुनर्स्थापना शेरशाह के सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में एक था ।
उसने डाकुओं और रहजनों का सख्ती से दमन किया और उन जमींदारों का भी जिन्होंने मालगुजारी देने से या सरकार का आदेश मानने से इनकार कर दिया था । शेरशाह के इतिहासकार अब्बास खान सरवानी का कथन है कि जमींदार इस कदर डर गए कि उनमें से कोई भी उसके खिलाफ बगावत का परचम उठाने या अपने इलाकों से गुजर रहे यात्रियों को सताने का साहस नहीं कर सकता था ।
शेरशाह ने अपने साम्राज्य में व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने तथा संचार -व्यवस्था को सुधारने पर बहुत ध्यान दिया । सिंधु नदी से लेकर बंगाल में सोनारगाँव जाने वाली उस पुरानी शाही सड़क की शेरशाह ने मरम्मत कराई, जिसे काफी समय तक ग्रांड ट्रंक रोड कहा जाता रहा ।
उसने आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक भी एक सड़क बनवाई जो स्पष्ट है कि गुजरात के बंदरगाहों तक जानेवाली सड़क से जुड़ जाती थी । उसने लाहौर से मुलतान तक एक तीसरी सड़क बनवाई । मुलतान उस समय पश्चिम और मध्य एशिया जाने वाले काफिलों का प्रस्थान-बिंदु होता था । यात्रियों की सुविधा के लिए शेरशाह ने इन सड़कों के किनारे हर दो कोस (लगभग 8 किमी) पर एक सराय का निर्माण कराया ।
सराय एक किलाबंद आवास होती थी, जहाँ यात्री रात गुजार सकते थे और अपने सामान को सुरक्षित भी रखवा सकते थे । इन सरायों में हिदुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग कमरे बनाए गए थे । हिंदू यात्रियों को बिस्तर और भोजन तथा उनके घोड़ों को दाना देने के लिए ब्राह्मण नियुक्त किए गए थे ।
अब्बास खान का कहना है: ‘इन सरायो का कायदा था कि जो भी इनमें आता, सरकार से अपने पद-प्रतिष्ठा के अनुरूप उपयुक्त भोजन आदि तथा अपने मवेशियों के लिए दाना-पानी पाता ।
सरायों के इर्दगिर्द गाँव बसाने के प्रयास किए गए और इन गाँवों में सरायों के खर्च के लिए जमीनें अलग कर दी गई । हर सराय में एक शहना (हाकिम) के अधीन अनेक पहरेदार होते थे । कहते हैं कि शेरशाह ने कुल 1700 सरायें बनवाई । इनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि वे कितनी मजबूत थीं ।
उसकी सड़कों और सरायों को ‘साम्राज्य की धमनियाँ’ कहा गया है । उनसे देश में व्यापार एवं वाणिज्य में तेजी आई । अनेक सरायें मंडियों (कस्बों) में परिवर्तित हो गईं जहाँ किसान अपनी उपज बेचने के लिए आया करते थे । इन सरायों का उपयोग डाक चौकियों के रूप में भी किया जाने लगा । इनकी सहायता से शेरशाह अपने विशाल साम्राज्य के घटनाक्रमों की जानकारी रखता था ।
व्यापार और वाणिज्य को प्रोत्साहन देने के लिए शेरशाह ने दूसरे सुधार भी किए । उसके पूरे साम्राज्य में मालों पर शुल्क केवल दो स्थानों पर लगता था । बंगाल में पैदा या बाहर से आयातित माल पर सीमा शुल्क बंगाल और बिहार की सीमा पर स्थित सकरी गली में लिया जाता था तथा पश्चिम और मध्य एशिया से आने वाले मालों पर सिंधु नदी के किनारे ।
कहीं भी दूसरी जगह सड़कों और नावों पर या नगरों में सीमा शुल्क लेने की अनुमति किसी को नहीं थी । दूसरी बार शुल्क मालों की बिक्री के समय देना पड़ता था । शेरशाह ने अपने सूबेदारों और आमिलों को निर्देश दिया कि सौदागरों और यात्रियों के साथ हर तरह से अच्छा व्यवहार करें और उन्हें कोई हानि न पहुँचाए ।
कोई सौदागर मर जाता तो उसके माल को गोया कि लावारिस मानकर जब्त नहीं किया जाता था । शेरशाह ने उन पर शेख निजामी का वाक्य लागू किया: ‘कोई सौदागर तुम्हारे मुल्क में चल बसे तो उसके माल पर हाथ डालना गुनाह है ।’ गाँवों के स्थानीय मुखिया (मुकद्दम) और जमींदारों को शेरशाह ने सड़क पर किसी सौदागर को होने वाली हानि के लिए जिम्मेदार ठहराया ।
माल चोरी हो जाता तो मुकद्दम और जमींदार को उसका पता लगाकर उसे बरामद करना होता था या फिर चोरों और डाकुओं के ठिकानों का पता बताना पड़ता था, वरना उन्हें वही दंड दिया जाता जो चोरों और डाकुओं को दिया जाता था । सड़क पर कत्ल होने पर भी यही कानून लागू किया जाता था ।
दुष्टों के कामों के लिए बेगुनाहों को जिम्मेदार ठहराना एक बर्बर कानून तो है, पर लगता है यह कारगर रहा । अब्बास सरवानी की जीवंत भाषा में ‘एक झुकी कमर वाली बूढ़ी औरत सर पर सोने के जेवरों का टोकरा लेकर यात्रा पर जा सकती थी और कोई भी चोर या डाकू शेरशाह की ओर से दी जाने वाली सजा के डर से उसके पास आने की हिम्मत नहीं कर सकता था ।’
शेरशाह के मुद्रा संबंधी सुधारों ने भी वाणिज्य और हस्तशिल्पों को बढ़ावा दिया । उसने पहले जैसे मिश्रधातु के खोट-मिले सिक्कों की जगह एक समान मानदंड वाले सोने, चाँदी और ताँबे के सुंदर सिक्के ढलवाए । उसका चाँदी का रुपया इतना सुदर ढला हुआ था कि उसके बाद सदियों तक वह मानक मुद्रा बना रहा ।
पूरे साम्राज्य में माप-तौल को प्रामाणिक बनाने के प्रयासों ने भी व्यापार और वाणिज्य को सहायता पहुँचाई । सल्तनत काल से चले आ रहे प्रशासनिक विभाग में शेरशाह ने कुछ अधिक परिवर्तन नहीं किया । अनेक गाँवों से मिलकर एक परगना बनता था । परगना एक शिकदार के अंतर्गत होता था जो कानून-व्यवस्था और सामान्य प्रशासन सँभालता था जबकि मुंसिफ या आमिल मालगुजारी की वसूली करता था ।
खाते फारसी और स्थानीय भाषा (हिंदवी) दोनों में रखे जाते थे । परगना से ऊपर शिक या सरकार होती थी जो एक शिकदार-ए-शिकदारान (शिकदारों का शिकदार) या फौजदार और एक मुंसिफ़-ए-मुंसिफान के अंतर्गत होती थी । लगता है इन हाकिमों के केवल पद-नाम ही नए थे क्योंकि परगना और शिक तो पहले के काल में भी प्रशासन की इकाइयाँ थे ।
कभी-कभी अनेक सरकारों को मिलाकर सूबे बनाए जाते थे । पर हमें यह नहीं पता कि सूबे थे कितने या सूबाई प्रशासन का ढर्रा क्या था । लगता है कुछ क्षेत्रों में सूबेदार सर्वशक्तिमान थे । बंगाल जैसे कुछ क्षेत्रों में वास्तविक शक्ति कबीलों के सरदारों के हाथों में थी और उन पर सूबेदार का बस ढीला-ढाला नियंत्रण होता था ।
जाहिर तौर पर शेरशाह ने सल्तनत काल में विकसित केंद्रीय प्रशासनतंत्र को ही जारी रखा । पर हमें इसके बारे में कुछ अधिक जानकारी नहीं है । शेरशाह मंत्रियों को अधिक अधिकार देने के पक्ष में नहीं था । वह बेहद मेहनती था तथा तड़के सुबह से देर रात तक राज्य के मामले देखता रहता था ।
जनता की दशा जानने के लिए वह बराबर देश के दौरे भी करता था । लेकिन भारत जैसे विशाल देश के सभी मामले कोई एक व्यक्ति तो देख नहीं सकता था चाहे वह कितना ही मेहनती हो । शेरशाह द्वारा अधिकारों का अपने हाथों में अत्यधिक केंद्रीकरण करना कमजोरी का एक स्रोत था और उसके हानिकारक प्रभाव तब देखे गए जब तख्त पर उसके जैसा कोई कुशल शासक न रहा ।
शेरशाह ने मालगुजारी व्यवस्था सेना और न्याय पर विशेष ध्यान दिया । वर्षो तक अपने पिता की जागीर सँभालने के कारण और फिर बिहार के वास्तविक शासक के रूप में शेरशाह सभी स्तरों पर मालगुजारी व्यवस्था की कार्यपद्धति को जानता था ।
कुशल प्रशासकों के एक दल की सहायता से उसने इस पूरी व्यवस्था को चुस्त बनाया । जमीन की उपज अब अनुमान पर या खेत या खलिहान में फसलों की बँटाई पर आधारित नहीं रही । शेरशाह ने खेती की जमीन की पैमाइश (माप-जोख) पर जोर दिया ।
एक फसली दर (जिसे राय कहते थे) तय की गई जिससे विभिन्न प्रकार की फसलों के लिए राज्य का भाग निर्धारित होता था । विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे बाजार दरों के आधार पर इसे जब-तब नकदी में भी बदला जा सकता था । राज्य का भाग उपज का एक तिहाई होता था ।
जमीनों को अच्छी, खराब और मझोली में विभाजित किया गया । उनकी औसत उपज की गणना की गई और औसत उपज का एक-तिहाई राज्य का भाग बन गया । किसानों के पास नकद या अनाज के रूप में भुगतान का विकल्प था हालांकि राज्य नकदी को वरीयता देता था ।
बोई गई जमीन का क्षेत्र फसलों के प्रकार और हर किसान के लिए देय राशि कागज पर दर्ज की जाती थी जिसे पट्टा कहते थे और हर किसान को उसकी जानकारी दी जाती थी । किसी को किसानों से कुछ भी फालतू लेने की अनुमति नहीं थी । पैमाइश करने वालों को उनके काम के बदले जो मिलना होता था उसकी दरें भी तय रहती थीं । अकाल एवं अन्य प्राकृतिक विपत्तियों का सामना करने के लिए प्रति बीघा ढाई सेर की दर से एक महसूल भी लिया जाता था ।
किसानों के कल्याण का शेरशाह को बहुत ख्याल था । उसका कहना था: ‘किसान लोग निर्दोष हैं, वे तो सत्ताधारियों के आगे झुक जाते हैं, और मैं अगर उनका दमन करूँगा तो वे गाँवों से भाग खड़े होंगे, जिससे मुल्क तबाह और वीरान हो जाएगा और उसे फिर से खुशहाल होने में लंबा वक्त लग जाएगा ।’
उन दिनों कृषि के लिए ढेरों जमीन उपलब्ध थी । इसलिए दमन की हालत में किसानों के गाँव छोड़कर भागने का खतरा वास्तविक था और यह शासकों द्वारा किसानों के शोषण पर अंकुश लगाने में सहायक हुआ ।
शेरशाह ने अपने विशाल साम्राज्य के प्रशासन के लिए एक मजबूत सेना तैयार की । उसने कबीलाई सरदारों के अधीन कबीलाई फौज खड़ी करने के चलन का त्याग कर दिया । इसके बदले उसने सैनिकों की सीधी भरती करने का सिलसिला आरंभ किया । इसके लिए हर सैनिक के चरित्र की जाँच की जाती थी तथा उसका विवरण (चेहरा) लिखा जाता था ।
उसके घोड़े को शाही निशान से दागा जाता था ताकि उनकी जगह घटिया नस्ल के घोड़े न लाए जा सकें । लगता है कि शेरशाह ने इस दाग की व्यवस्था को अलाउद्दीन खलजी के सैन्य सुधारों से अपनाया था । शेरशाह की सेना की शक्ति यूँ बतलाई गई है: सवार 1,50,000; तोड़ीदार बंदूकों या तीर-कमान से लैस पैदल 25,000; हाथी 5,000 और तोपों का एक समूह । उसने साम्राज्य के विभिन्न भागों में छावनियाँ बनाई तथा प्रत्येक में एक भारी दस्ता नियुक्त किया ।
शेरशाह ने न्याय व्यवस्था पर अच्छा-खासा जोर दिया । उसका कहना था: ‘न्याय धार्मिक अनुष्ठानों में सबसे उत्तम है तथा काफिर और मुसलमान इसका एक समान अनुमोदन करते हैं ।’ चाहे ऊँचे अमीर हों, उसके अपने कबीले के लोग हों या उसके संबंधी हों, उत्पीड़कों को वह नहीं बख्शता था ।
न्याय के लिए विभिन्न स्थानों पर काजी नियुक्त किए गए थे पर स्थानीय स्तर पर दीवानी और फौजदारी के मामले पहले की ही तरह ग्राम पंचायतों और जमींदारों द्वारा निबटाए जाते थे । न्याय प्रदान करने के मामले में एक बड़ा कदम शेरशाह के बेटे और उत्तराधिकारी इस्लाम शाह ने उठाया ।
इस्लाम शाह ने विभिन्न कानूनों को संहिताबद्ध किया और इस तरह काजियों पर निर्भरता समाप्त हो गई जो इस्लामी शरीअत की व्याख्या करते थे । इस्लाम शाह ने अमीरों की शक्तियों और सुविधाओं को कम करने तथा सैनिकों को नकद वेतन देने का भी प्रयास किया ।
इस्लाम शाह ने न केवल प्रशासन बल्कि राजस्व के मामलों पर भी विस्तृत आदेश जारी किए जिनका हर सरकार में पालन किया जाना आवश्यक था । अमीरों को बादशाह का जारी किया हुआ फरमान जब कही भेजा जाता था तो वहाँ के अमीर वर्ग को पूरे ताम-झाम के साथ खड़े होकर उसका स्वागत करना पड़ता था ।
इसमें शक नहीं कि शेरशाह एक उल्लेखनीय हस्ती था । अपने पाँच साल के संक्षिप्त शासनकाल में उसने प्रशासन की एक ठोस व्यवस्था स्थापित की । वह एक महान निर्माता भी था । सासाराम में अपने जीवनकाल में ही उसने अपने लिए जो मकबरा बनवाया वह वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना माना जाता है । उसे पिछली वास्तुशैली का उत्कर्ष तथा बाद में विकसित होने वाली नई शैली का प्रस्थानबिंदु भी माना जाता है ।
शेरशाह ने दिल्ली में यमुना के किनारे एक नया नगर भी बसाया । इसमें अब सिर्फ पुराना किला और उसके अंदर स्थित सुंदर मस्जिद ही शेष हैं । शेरशाह विद्वानों को संरक्षण भी देता था । उसी के शासनकाल में हिंदी की कुछ सबसे सुंदर रचनाएँ पूरी हुई, जैसे मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत ।
धर्म के क्षेत्र मे शेरशाह जैसा कि उसकी सामाजिक और आर्थिक नीति से स्पष्ट है, कोई धर्मांध नहीं था । उलमा पर न तो इस्लाम शाह निर्भर था न शेरशाह, हालाँकि दोनों उनका बहुत सम्मान करते थे । राजनीतिक कार्रवाइयों को उचित ठहराने के लिए कभी-कभी धार्मिक नारों का सहारा लिया जाता था ।
पूरनमल और उसके सहयोगियों ने मालवा में रायसेन के किले को जब एक पक्का वादा मिलने के बाद खाली कर दिया तब धोखे से उनकी हत्या इसी का एक उदाहरण है । स्पष्ट है कि शेरशाह ने किसी नई उदार धर्म नीति का आरंभ नहीं किया । हिंदुओं से जजिया लिया जाता रहा । उसका अमीर वर्ग लगभग पूरी तरह अफगानों पर आधारित था ।
लेकिन जब प्रशासन में दम आया तो राजस्व विभाग के ऊँचे पदों पर अधिकाधिक हिंदू नियुक्त किए जाने लगे जिससे अफगानों में खलबली मच गई । एसा ही एक व्यक्ति टोडरमल था जो अकबर के समय में दीवान-ए-आला के पद तक पहुँच गया ।
इस्लाम शाह के उत्तराधिकारी आदिल शाह के समय में हेमू, जिसने बाजार अधीक्षक (शुहने) के रूप से अपना जीवन आरंभ किया था ऊपर उठकर वजीर के पद तक पहुँचा । इस तरह अपने ठोस कबीलाई आधार के बावजूद अफगान राजसत्ता अपने आधार को धीरे-धीरे बढ़ा रही थी और शासक वर्ग में गैर-मुसलमानों को भी शामिल कर रही थी । पर बुनियादी परिवर्तन तो अकबर के साथ ही आया ।